अपनी प्रस्तुत पुस्तक की भूमिका लिखते हुए मेरी तूलिका भयंकपित हो जाती है क्योंकि शंकर भगवान के त्रिशूल पर यह धराहीं नहीं खड़ी हैं अपितु मेरी जिन्दगी भी पड़ी है। यही यथार्थ है- मैं धूल में पला, फूल से जला और शूल से छला हूँ। अपने इर्द-गिर्द फैली-पसरी-बिखरी समस्त अनुभूतियों को उन्मुक्त मन से जब मैंने सहेजा-समेटा-संजोया तो पाया कि धूल, फूल और शूल का समुच्चय त्रिशूल है – ‘रूक जा आदित्य‘……. एक हिन्दी अंाचलिक उपन्यास….. एक लोकल कथा……
काल्पनिकता और वास्तविकता की स्वाभाविकता पर इस उपन्यास की इमारत की बुनियाद डाली गयी है। मसलन, दोनों का मणिकंचन संयोग…… कथा घटनाएँ और पात्रों के नामकरण का सादृश्य प्रतिपादन संयोग कदापि अस्वीकारा नहीं जा सकता है। पर यह अक्षम्य नही,ं क्षम्य है, क्षमाप्रार्थी भी है। यद्यपि सबके उत्साह में अमरता का लोभ संवरण मात्र है, तथापि इसमें प्रकाश भी है, तलाश भी है हताश भी है…… इसमें आग भी है, दाग भी है, राग भी है…… इसमें आह भी है, राह भी है, दाह भी हैं…..इसमें प्यास भी है, रास भी है, हास भी है। पर सब में खास-विश्वास आस……
मधुमास ही है…. अंधविश्वास नहीं है।
यह एक प्रेम कथात्मक उपन्यास है। प्रेम की कोई मंजिल नहीं होती है। बचपन का प्रेम किस तरह परवान चढ़ता है जो सारे विभेदों को मिटा कर अंततः एकाकार हो जाता है। अस्तु, प्रेम जान लेवा रोग नहीं , जीवन रक्षक औषधि के रूप में यहाँ वर्णित है। यहाँ अभिव्यंजित किया गया है कि प्रेम वासना नहीं हो सकता तो वासना भी प्रेम नहीं हो सकती है। कामवासना जब मस्तिष्क के साथ रति-क्रिया करने लगती है तो उसकी गर्भमयी कोख से कामुकता जन्म लेती है। इन सारे भावों को समाहार रूप में इन तीन पंक्तियों में सहेजा-समेटा-संजोया गया है-
”रूक जा आदित्य!
मत कर प्रभात
आज मिलन की पहली रात।”
‘आदित्य‘ एक संष्लिष्ट शब्द है, श्लेष अलंकार है-‘आदित्य‘ उपन्यास का नायक और ‘सूर्य‘ दोनों के लिए प्रयुक्त है।
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