‘मानव’ सभ्यताओं की उफनती नदियों को लांघ कर अनगिनत सि(ान्तों को
ग्रहण कर अपने मूल स्वरूप से विरत होती चली जा रही है। व्युत्पत्ति के मूल में ही
अगर साध्य सन्निहित हो, तो मौलिक सि(ान्तों की शाखाएँ अनावश्यक लगने
लगती है। जीवन उस तरणी का नामकरण है जिसकी पतवारें मानवीय तर्क-शक्ति
से चलायी जाती है। शक्ति भिन्न रूपों में एक ही कुदरत की संतान हैं। कुदरत सर्वदा
से मौन है। प्रकृति अपने संतानों की प्रथम गुरु है, तो वही अन्तिम भी।
उसके अंतर्नाद की अभिव्यक्ति समाज के रंगमंच पर कहीं-न-कहीं सुप्त रूप
में जरूर देखने को मिलती है। रूढ़ियों की निद्रा से कब यह जाग्रत हो, यह कल के
होने वाले सूर्योदय पर ही उम्मीद रख सकते हैं। ज्ञान की उषा में ही अज्ञान की घोर
तिमिर कहीं लुप्त हो चली जाती है, इसलिएμ
ज्ञान शक्ति है!
ज्ञान पूर्ण है!
ज्ञान समाधान है!
ज्ञान अहिंसा है!
ज्ञान आनन्द है!
ज्ञान सत्य है!
ज्ञान सहस्रों रूपों में भी एकवाचक है। अन्ततः, ज्ञान वेफ सहस्रों रूपों को मेरा
कोटि-कोटि प्रणाम!
डॉ0 मनीष सिंह
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