मॉं भारती के उपासक कवि और प्रिय मित्र डॉं. नरेन्द्र सिंह तोमर की चतुर्थ काव्य-कृति ‘हम माटी के दीप हैं’ को लोक समर्पित करते हुए मुझे अपार खुषी और आंनद की अनुभूति हो रही है। डॉ. तोमर पिछले लगभग 4 दषक से निरन्तर काव्य-गंगा में डुबकी लगाकर साहित्य साधना में निरत हैं। इसके पूर्व ‘सवालों के नागपाष’, ‘महासमर के बीज’ तथा ‘चिंगारी अब भी जिंदा है’ -का हम रसास्वादन कर चुके हैं।
‘हम माटी के दीप हैं’-पूर्व रचनाओं से सर्वथा पृथक 140 छन्दबद्ध कुण्डलियों का संग्रह है। कुण्डलिया एक मात्रिक छंद है, जो दोहा और रोला को एक साथ जोड़कर सृजित किया जाता है। यह छंद अपने प्रत्येक चरण में 24 मात्राऐं धारित करता है जिसके 6 चरण होते हैं-प्रथम दो चरण दोहा के, षेष चार चरण रोला के होते हैं। इस परम्परागत षास्त्रीय छंद की एक मौलिक विषेषता यह होती है कि जिस षब्द से षुरू होता है उसी षब्द से इसका समापन भी होता है।
कुण्डलिया षब्द सुनकर रीतिकालीन सुप्रसिद्ध कवि गिरिधर कविराय का स्मरण आ जाता है, जिनकी कुण्डलियों ने काफी लोक प्रसिद्धि अर्जित की। हालांकि श्री त्रिलोकसिंह ठकराल जैसे आधुनिक कवि आज भी कुण्डलिया लिख रहे हैं। लेकिन साठोत्तरी कविता के कुहासे से निकलकर आज जब अकविता अतुकान्त कविता, गद्य कविता, वीट कविता, आज की कविता आदि नामों से षिल्प-छंद मुक्त हिन्दी कविता के विविध रूप दिखाई देते हैं, तब आज के दौर में परम्परागत षास्त्रीय प्रतिमानों से आबद्ध कुण्डलिया लिखना निःसंदेह चुनौतीपूर्ण काम है। डॉ. नरेन्द्र इस षिल्पगत कसौटी पर खरे उतरे हैं, वे स्वातःसुखाय के लिए नहीं अपितु व्यक्ति निर्माण, समाज सुधार व राष्ट्र उन्नयन के लिए लिखते हैं।
इस काव्य कृति में एक ओर जहाँ दैनिक लोक जीवन की नीतिपरक उक्तियाँ मिलती हैं, वहीं दूसरी ओर घर-परिवार, समाज और देष में व्याप्त बुराइयों, विपरीतताओं, विसंगतियों व समस्याओं के प्रति तीखे असंतोष व आक्रोष का स्वर भी परिलक्षित होता है, लेकिन वे मात्र असंतोष या रोष प्रकट करके ही नहीं रह जाते अपितु इनके व्यवहारिक व सकारात्मक समाधान के सुझाव प्रस्तुत कर सच्चे समाज सुधारक व देष भक्त का दायित्व भी निभाते हैं। वैसे तो इस अद्य प्रकाषित कृति के उपवन में जीवन-जगत के विविध रंग यथा व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, राजनीति, प्रकृति, कर्म, भाग्य, वैराग्य, अध्यात्म, दर्षन, समय, श्रम, और लोक नीति आदि के विविध पुष्प प्रफुल्लित हैं किन्तु कवि डॉ. नरेन्द्र तोमर का मन आज के भारतीय समाज के अधःपतन और राजनीति में आई मूल्यहीनता में ज्यादा रमा है। इनकी नकारात्मका से वे बहुत व्यथित, चिन्तित व आक्रोषित हैं। इन सामाजिक विसंगतियों, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, षोषण आदि के लिए वे व्यक्ति को ही धिक्कारते दुत्कारते हैं और फिर जागरण की पुचकार से उनका हौसला-हिम्मत बढ़ाते हुए उसके समाहार के साधन सुझाते हैं। इस प्रकार डॉ. तोमर मूलतः सामाजिक सरोकार और राष्ट्रीय चेतना के मानवतावादी कवि हैं।
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