1920 के दशक में दरभंगा जिले के ग्राम-डिहरामपुर निवासी श्री अच्युतानंद लाल सुन्दरपुर प्राइमरी स्कूल, दरभंगा में सहायक शिक्षक हुआ करते थे. उनकी शैक्षणिक योग्यता थी ‘मिड्ल-पास’ और उनके सेवाकाल का उच्चतम वेतन था 7 रुपये प्रति माह. उनकी धर्मपत्नी श्रीमती सूर्यमुखी देवी साक्षर मात्र थीं. उनकी एक पुत्री के जन्म के बाद 2 पुत्र हुए जो जन्म के कुछ ही दिनों के अंदर काल-कवलित हो गए. स्थानीय पंडितों के अनुसार उस दंपत्ति को पुत्र-रत्न का योग नहीं था. दैवयोग से 15 जनवरी 1928 को उनके घर एक पुत्र ने जन्म लिया. पंडितों से मंत्रणा की गई कि इस पुत्र को खोना नहीं चाहते हैं౼ कोई उपाय बताइये. पंडितों ने पुनः कुंडली देखी और उसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि आपको तो पुत्र-सुख लिखा ही नहीं है. लेकिन कहते हैं न, हमारे पंडितों के पास हर दैवी प्रकोप का समाधान होता है. उन ज्ञानी जनों ने उपाय निकाला कि आप इस शिशु को बेच दीजिये. फिर इस पर आपका कोई मातृ-पितृ हक़ नहीं रह जायेगा. तभी इस शिशु के ग्रह कटेंगे. दुखी दंपत्ति ने ऐसा ही किया. गाँव की सहोदरी नाम की एक पनिहारिन से सवा सेर (लगभग 1.25 kg) मड़ुआ (रागी) लेकर इस शिशु को उसके हाथों बेच दिया गया कि౼ अब से ये हमारा नहीं तुम्हारा बच्चा हुआ. इस तरह बेचने की रस्म अदायगी पूरी हुई और उस शिशु का नामकरण हुआ౼ “बिकउआ” अर्थात बिका हुआ. तदुपरांत उसके अपने माता-पिता उसका लालन-पालन किसी दूसरे की धरोहर के रूप में करने लगे. दुर्भाग्यवश, ढाई वर्ष की उम्र में वह चेचक से संक्रमित हो गया और उसकी दायीं आँख की ज्योति जाती रही. तब श्री महेन्द्र मिश्र नामक एक चिकित्सक ने उसका इलाज किया और आँखों की ज्योति वापस आने लगी. इसे चिकित्सक का उपकार मान कर ౼ कि महेन्द्र मिश्र ने उसे दूसरा जीवन दिया ౼ माता-पिता ने शिशु का दूसरा शुभनामकरण किया౼ “महेन्द्र”.
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प्रोफेसर महेन्द्र प्रसाद : शतक के सोपान पर… 94वें पायदान पर..
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संकलन : डॉ. मुकुल कुमार
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No. of Pages : 108
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Dimensions | 32 × 21 × 0.5 cm |
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